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भगवती लाल जी की कुल्फी

बचपन की बात, गर्मियों के दिन, दिन का समय और टन टन टन की आवाज़ | भले ही आप गहरी नींद में हो लेकिन हाथीपोल में तीसरी गली में भगवती लाल जी के ठेले से टन टन टन घंटी की आवाज़ से अच्छे अच्छे जग जाते थे | 



जैसे ही पता लगता की भगवती लाल जी कुल्फी की लॉरी तीसरी गली तक पहुंच गयी है तो पैसे का जुगाड़ शुरू हो जाता था | बस सारे खाने खजाने खोज लो कही से 50 पैसे, 1 रुपया का इंतेज़ाम हो जाये और अगर 2  रूपये मिल जाये तो रबड़ी वाली कुल्फी का जैकपोट | इधर उधर ताको में आरियो में हारे-हमारे (तलाशना) शुरू | बहुत बार तो कोई पैसे दे देता तो बचाकर रखते ताकि दिन में भगवती लाल जी आये तो उस समय दुसरो का मुँह नहीं ताकना पड़े | अगर पैसे नहीं है तो दूसरा जुगाड़ शुरू | पहले मम्मी को पटाना, बाई को पटाना, ताऊजी को पटाना | फिर भी नहीं दे तो उनको उनके किसी काम को करने में सहायता का लालच देना की 1 रूपया दोगे तो आपका ये काम मै कर लूंगा वा खाली पचास पैसे दे दो पूरा काम कर लूंगा  |  बहुत बार कोई ना कोई जुगाड़ हो ही जाता | क्योकि कैसे भी करके भगवती लाल जी क़ी रेहड़ी तीसरी गली से हमारे घर तक पहुंचेगा तब तक कुछ न कुछ जुगाड़ करना ही बहुत बड़ा मकसद था | 

सच में उस कुल्फी की बात ही कुछ और थी | उसके सामने आज की बड़ी से बड़ी आईस्क्रीमे भी फैल है | क्या स्वाद था अद्भुत | मलाई कुल्फी, मावे वाली कुल्फी, रबड़ी कुल्फी और इसके ऊपर वो कुल्फी देने से पहले मलाई या फिर रबड़ी में डीप करके देते | उसका अलग स्वाद था बहुत बार उनसे गुहार लगायी जाती की अच्छे से डीप करके दो | मेरे कम आयी |

बहुत बार कोई बड़ा घर पर मौजूद है या फिर मेहमान आये हो तो सबके लिए मंगायी जाती फिर हम लेकर आते तो एक हमें भी मिलती | 5-5, 6-6 कुल्फियां एक साथ हाथ में उंगलियों के बीच फसाकर लेकर आते कितना मुश्किल काम है हम ही जानते है और फिर सबको एक एक करके बाँटते | दुसरो को देते समय भी ध्यान रखना पड़ता कही गलती से निचे नहीं गिर जाये | बहुत बार जो वो कुल्फी देने से पहले  रबड़ी या मलाई में डीप करते उनकी हाथों पर पिघलकर धार से लकीरें बन जाती जो कभी कभी कोहनी तक भी पहुंच जाती सबको कुल्फी देने के बाद  सबसे पहले उन पुरे भरे हुए हाथो को चाट चाट कर साफ़ किया जाता कही एक भी कुल्फी का बूँद waste ना हो जाये | कुल्फी के निचे वाली साइड में कभी कभी खारी लगती क्योकि भगवती लाल जी कुल्फी ज़माने के लिए नमक का उपयोग करते थे | 


जब कुल्फ़िया ख़तम हो जाती तो फिर उन कुल्फियों की डंडिया इकटठी की जाती | डंडियों को इकटठा कर उससे गाँधी जी का चश्मा, छोटी छोटी टेबल कुर्सियां आदि बनाते थे यह ही हमारा खेल या फिर टाइमपास होता था | 

गर्मियों में तो भगवती लाल जी कुल्फ़ी की रेहड़ी लेकर आते थे और सर्दियों में फाफड़ा, तिल मूंगफली का चपड़ा, तिल गुड़ की रेवड़िया आदि लेकर आते थे | उनके फाफड़े भी बहुत ही शानदार थे खासकर फाफड़े के साथ मिलने वाली कच्चे टमाटर और हरी मिर्ची की चटनी उसका स्वाद काबिले तारीफ़ था | एक अलग ही लेवल का आनंद |

इस तरह भगवती लाल जी का ठेला हमारे एरिया में बहुत लोकप्रिय था | 👌😋

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