Navratri Garba in Purbia Kalal Samaj Nohra Hathipole Udaipur
गरबा / डांडिया / डांडिया रास / नवरात्रि
गरबे का नाम सुनते ही मन में कुछ तरंगें उठने लगती है और मन में कुछ धुनें गुनगुनाने लगती है जैसे की
चालो पेला बाम्बू बीट्स ना डांडिया रमवा जइये |
रास रमवा ने वहलो आवजे....
आसमाना रंग नी चुंदड़ी रे
पँखिडा तु उडी ने जायजे पावागढ़ रे..
मारी महाकाली ने जाइने कीजे गरबों रमे रे ||
ऐसी कितनी ही धुनें जिनको सुनते ही पैर अपने आप थिरकने लगे और दया बेन जैसे नाचने का मन करें | वैसे गरबा रास भारत में कई जगहों पर लोकप्रिय है | खासकर उत्तर भारतीय राज्य जैसे गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि |
मै, यहाँ पर हमारे पुर्बिया समाज के नोहरे हाथीपोल के गरबे के बारे में बताना चाहता हू | नवरात्री के दिन या यू कहे गरबे के दिन | वो गरबे के नो दिन बहुत ही शानदार होते थे |
नोहरे के गरबे की एक झलक 2022 |
वैसे जब भी गरबे के दिन(नवरात्रि) आते थे तो 10-15 दिन पहले ही पता चल जाता था की गरबे शुरू होने वाले है | डंडियो के टकराने की आवाज़, गरबे के गानो की आवाज़ आस पास सुनाई देने लगती और उसकी चमक हमारे नोहरे में भी दिखने लगती | हमारे समाज के नवयुवक, बच्चे शाम-शाम को नोहरे में इकट्ठे होना शुरू होने लगते थे |
वैसे तो हमारा नोहरा हमारे खेल का अड्ड़ा हुआ करता था पूरे साल के लिए ही | क्रिकेट, बॉलीबॉल, कबड्डी, आइस-पाइस, खो-खो, कोकोनट-कोकोनट यस सर यस सर, चैन-चैन छूटा, मादड़ी, पकड़नी, लोहा पकड़नी (यहाँ से कहाँ तक), बर्फ-पानी, सितौलिया, साईकल स्टंट, और ना जाने कितने ही खेल यहाँ खेले और सीखे थे | हर शाम नोहरे में इकट्ठे होना और रात में घर से कोई बुलाने नहीं आये तब तक खेलना | बहुत बार किसी कारणवश नोहरा नहीं खुल पाता तो मन में एक अलग गबराहट हो जाती की नोहरा कब खुलेगा। शाम को बार-बार जाकर चेक करते की नोहरा खुला है की नहीं | कभी कभी नोहरे की चाबी मेरे ताऊजी के पास ही रहती थी तो चुपचाप उनकी जेब से लेकर आ जाता और नोहरा खोल देता। चाहे कुछ भी हो उस समय हमसे हमारा नोहरा नहीं छूटता था | कहा जाये तो नोहरा हमारे बचपन का प्यार था जिसको भुलाया नहीं जा सकता है।😊
लेकिन जब गरबे के दिन शुरू होने वाले होते तो सारे खेल बंद और सब नवयुवक, बच्चे गरबे की तैयारियों में लग जाते | मेँ तो उस समय छोटे बच्चों की केटेगरी में आता था | लेकिन रहता में बड़े बच्चों के साथ | सबसे पहले हाथीपोल नोहरे में सफाईया शुरू | कोई चौक में झाड़ू लगा रहा है | तो कोई बाथरूम धो रहा है, तो कुछ लोग पानी की टंकी धोने में लगे है | तो कुछ लोग दीवारों पर आरास करने में लगे है | तो कुछ लोग समूह बनाकर चंदा लेने जाते थे | चंदा इकटठा करने में नवयुवकों को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता था | लोगो के घरो के 2 -3 चक्कर काटने पड़ते | क्योकि बहुत लोग चंदा देने में आनाकानी करते | जैसे-तैसे चंदा इकट्ठा होता | फिर नोहरे में रंग रोगन शुरू माताजी के मंदिर में कलर, आरास, म्यूजिक सिस्टम स्पीकर माइक टेस्टिंग आदि आदि |
नोहरे की पुताई(आरास) से सम्बन्धित, मुझे एक छोटी सी स्टोरी याद आ रही है। नवरात्रि के दिन थे और पुताई का काम चल रहा था | एक बड़ी दिवार पर पुताई हो गयी थी और दूसरी दीवारों पर पुताई चल रही थी सब बड़े पुताई सफाई में लगे हुए थे | हम छोटो को तो छोटा-मोटा काम ही मिलता था जैसे रूपलाल जी की दुकान से ये लेके आना, कुछ सामान इधर-उधर रखना, किसी के घर से कुछ लेके आना आदि | बड़ा काम हमें नहीं देते थे | उस दिन हम बच्चों के पास कुछ खास काम नहीं था तो हम खेल खेलने लगे, दरवाज़े पर चप्पल से निशाना लगाने का | 😂
उस बड़ी दिवार पर नीचे एक दरवाज़ा था जो दूसरी तरफ समाज का ही एक मकान था जिसका मैन गेट बोहरवाड़ी वाली गली में खुलता था | उस दरवाज़े पर हम सब बच्चे अपने अपने चप्पल दूर से फेंककर निशाना लगा रहे थे की किसका दरवाज़े पर लगता है। एक दो बार तो सही लगा लेकिन एक बार मैंने चप्पल जोर से फेंका तो निशाना दरवाज़े पर ना लगकर ऊपर दिवार पर लगा और नयी नवेली दीवार पर बहुत बड़ा चप्पल का छापा लग गया। 😀 सभी बड़े भैया उस चप्पल के छापे को देखकर बहुत क्रोधित हुए |😡 एक तो इतनी मेहनत करके इस दिवार की पुताई ख़तम की और मैने उनकी चाँद जैसी दीवार पर चप्पल का टीका लगा दिया | सब मेरे तरफ भागे और मैं नोहरे के दरवाज़े की तरफ | ताकि बचकर बाहर भाग सकू | मुझे पता था आज तो मै गया जैसे तैसे तेज़ भागकर नोहरे के दरवाज़े तक पंहुचा लेकिन तब उधर से एक बड़े भैया आ रहे थे उन्होंने भागते देख मुझे पकड़ लिया फिर क्या फुल रेपटे शुरू। फिर मुझे पकड़कर उस निशान के पास लाये और जोर से डॉटा | फिर बोला ये निशान अब तुझे ही साफ़ करना पड़ेगा फिर मुझे स्टूल पर चढ़ाया और पहले कपडे से निशान साफ़ करवाया फिर 3-4 हाथ आरास के करने पड़े तब जाकर निशान गायब हुआ | फिर जाकर उन्होंने मुझे नीचे उतरने दिया बाकी बोला जब तक छापा पूरा नहीं साफ हो जाता पुताई करते रहना | इस तरह से मेने उस चाँद जैसी दीवार पर लगे टीके को साफ़ किया और जान बची 😄😄
नोहरे में गरबा प्राँगण का अधिकतर डेकोरेशन सब लड़के मिलकर खुद ही करते थे | मुझे याद है सब लड़के हर साल नवरात्री में कुछ ना कुछ अलग डेकोरेशन में जरूर try करते थे | कभी सेण्टर में हवा में साइकिल की रिंग लटकाकर उसके चारो तरफ तार बांधकर उस पर फर्रियाँ और लाइट्स लगाते थे | प्लास्टिक की फर्रियाँ, कागज़ की फर्रियाँ तो लड़के खुद ही मिलकर लगाते थे। लेकिन लाइट्स लगाने का काम हर साल नईम भाई को ही दिया जाता था। उनकी पास ही गली में इलेक्ट्रीशियन की दुकान थी | कभी लाइट्स गरबे के गोले में ऊपर एक sequence में लबजब-लबजब जलती तो कभी दीवारों पर कुछ अलग अलग लाइटों की लड़ियों से सुन्दर आकृतियाँ बनायीं जाती तो कभी बड़े-बड़े लटकने वाले झूमर लगते जिसमे से डायमंड(हीरे) जैसे आकृति दिखने वाले काँच के टुकड़े तोड़ तोड़ कर हम ले लेते थे | और उन हीरो को इकटठा करना हमारे लिए खजाना इकटठे करने जैसा था | इस तरह से गरबे की तैयारियो का भी एक अलग ही लेवल का आंनद था |
नवरात्रि का पहला दिन नवरात्रि स्थापना का होता था और यू कहे तो गरबे की शुरुआत का दिन | पहले दिन गरबा प्रांगण में सेन्टर में दुर्गा माताजी की मूर्ति स्थापित की जाती, और पूजा की जाती और उसके चारो और गरबा खेलने का घेरा(गोला) बनाया जाता और गरबा खेलने की बॉउंड्री बनाई जाती बैरिकेड लगाकर। बाकी जगह में बैठने के लिए कुर्सियां और दरी बिछाई जाती | शाम को जब थोड़ा अँधेरा होता और गरबा प्रांगण की लाइटे जलती तो गरबा प्रांगण बहुत ही मनमोहक दिखता। शाम को सभी लोग गरबे के लिए इकट्ठे होते, साथ ही सबको अपना नाम गरबे के लिए लिखाना पड़ता था। कागज़ का बैच(कार्ड) खरीदना पड़ता था उस कागज़(गत्ते) के कार्ड पर एक नंबर लिखा होता था जिसका उपयोग पुरस्कार वितरण के लिये किया जाता | हर दिन बेस्ट डांस करने वाले का नंबर नोट किया जाता फिर लास्ट दिन उनको पुरस्कार मिलता था | वैसे तो जो जो कार्ड खरीदता सबको लास्ट दिन पुरस्कार मिलता ही था। 😀
शुरू के 1-2 दिन तो लोग कम इकट्ठे होते थे। लेकिन फिर जो भीड़ इकट्ठी होती थी बाप रे बाप | नोहरे में पैर रखने की भी जगह नहीं होती थी | फिर चलते एक-एक, दो-दो घंटे के गरबे के घेरे। बड़े भैया में से एक-दो एंकरिंग भी करते थे | आज भी याद है वो माइक पर अनाउंसमेंट "सभी युवक-युवतियाँ गरबा प्रांगण में घेरे (गोले) में आ जाये" इस अनाउंसमेंट के साथ सब घेरे में आमने सामने खड़े हो जाते दो घेरे बनते एक अंदर की साइड और एक बाहर की साइड | एक घेरा clockwise घूमता तो दूसरा घेरा anticlockwise घूमता | और एक एक करके सब एक दूसरे के साथ बारी बारी से गरबा खेलते। पहले songs धीरे धीरे speed में चलते तो डांडिया भी धीमे धीमे चलता और कदम भी slow-slow लेकिन बाद में गानो की स्पीड बढ़ती और साथ ही लोगों के डांस की स्पीड भी फिर लास्ट में जो लोग थकते जाते वो बीच में निकलते जाते |
अंदर एक छोटा घेरा छोटे बच्चो का भी बनता | हम भी जब घेरे के लिए अनाउंसमेंट होता तो फट से हम वालंटियर्स से नज़र बचाके बड़े युवक-युवतियों के घेरे में खड़े हो जाते क्योकि असली मजा तो बड़ो के साथ खेलने में आता था | और उनके प्रोपर राउंड में गरबा चलता तो हमें हर बार अलग अलग व्यक्ति के साथ खेलने को मिलता था।
लेकिन हम बच्चों को बड़ो के घेरे में देखते ही वालंटियर्स हमें घेरे से बाहर निकालने को टूट पड़ते | बोलते की तुम सही नहीं खेलोगे और गरबे के घेरे को बीच में बिगाड़ दोगे | हम उनसे इतनी विनती करते प्लीज् हमे खेलने दो हम गेम नहीं बिगाड़ेंगे, हम अच्छा खेलेंगे | लेकिन वो हमारी बात कहाँ मानने वाले। पता नहीं क्यों हम छोटे बच्चो के तो वो दुश्मन ही थे जबकि मुझे लगता है छोटे बच्चे भी अच्छा ही खेलते है और वैसे हम भी कहा छोटे थे अब तो बड़े हो गए थे |😀
जब बड़ो के गरबे का घेरा शुरू होता तो हम, छोटे बच्चों के घेरे में नहीं खेलते क्योकि उसमे कुछ मजा नहीं आता। खाली हम इसी ताक में रहते की कैसे भी करके अंदर घेरे में घुस जाए पहले ही दो जने के पेयर बनाके के रखते जैसे कही खाली जगह नजर आती फट से घेरे में घुस जाते | कभी-कभी वालंटियर्स तो एक दम दुश्मन बन कर हमें बिल्कुल गरबा प्रांगण में घुसने नहीं देते तो फिर हमारा काम होता दूसरों को निकलवाने का | जो जो हमारी उम्र का होता और उसको खेलने दे रहे हो तो उसकी शिकायत करना और उनको कैसे भी करके बाहर निकलवाना। वालंटियर्स भी कम नहीं थे वो हमारी उम्र की लड़कियों को तो बड़ों के घेरे में खेलने के लिए allow कर देते थे लेकिन हम लड़को से ना जाने क्या दुश्मनी थी इनकी | पता नहीं वालंटियर्स के रिश्तेदारी में थे तो उनको खेलने देते लेकिन हमारे साथ हमेशा पक्षपात ही होता लेकिन फिर भी हम कहा हार मानने वाले | बहुत बार लड़-झगड़कर हम कहते या तो उन्हें भी निकालो या फिर हमे भी खेलने दो | फुल लड़ाई झगड़ो का घमासान चलता | कभी कभी घेरे में लोग कम इकट्ठे हुए हो तो हमें भी मौका मिलता उस समय वालंटियर्स हमें बड़ो के साथ खेलने देते थे और फिर हमारे मजे का लेवल ही कुछ और होता।
उस समय गरबे के डंडियों का भी अलग ही चलन था लकड़ी के भारी वाले डंडे जिसे खेलते समय मस्ती मजाक में जोर से हमारे डंडियो से मारकर सामने वाले के गरबे के डंडे तोड़ देते थे | फिर कुछ लोहे या स्टील के डंडियों का भी चलन था जो थोड़े महँगे आते थे और उसमें एक डंडे में बीच में बेयरिंग भी लगी होती तो बच्चे गरबे खेलते समय बीच-बीच में कृष्ण भगवान् जैसे उंगली पर चक्कर घुमाते थे वैसे ही डंडे को बेयरिंग से उंगली में घुमाकर स्टाइल मारते थे, और लोगो को इम्प्रेस करने की कोशिश करते थे | 😁
बेयरिंग वाले डांडिया |
रोजाना 2-3 राउंड डांडिया होने के बाद घूमर होती थी वो भी गरबे वाली घूमर |
घुमर रमवा म्हें जास्याँ
गरबे वाली घूमर बिना डंडियो के खेली जाती है और इसका एक ही बड़ा सर्कल बनता था घूमर में भी शुरू में slow speed में चलती लोगो के पैर भी धीरे धीरे चलते फिर गाने की स्पीड तेज, फिर और तेज लास्ट में तो ऐसी हालत होती की घूमर करते हुए लगभग दौड़ना ही पड़ता था | आधे लोग तो गाने की स्पीड बढ़ते ही हटने लग जाते थे और घूमर के लास्ट तक मुश्किल से कुछ लोग ही बचते थे |
हर दिन गरबा की समाप्ति, माता जी की आरती से होती थी और वो भी फेमस आरती
होंठो की हैं थालियां बोल फूल पाती,
रोम रोम जिव्हा तेरा नाम पुकारती,
आरती ओ मैया आरती, ज्योतावालिये माँ तेरी आरती…
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