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नानाजी का मिनी बैंक

नानाजी का मिनी बैंक बैंक क्या होता है जिसमे हम पैसे जमा कराते है और जरूरत पड़ने पर निकालते है। ठीक वैसा ही हमारे नानाजी का मिनी बैंक था। नानाजी एक छोटी डायरी बना रखी थी। जिसमे हम सब cousin भाई बहन का अलग अलग पेज पर नाम होता था। कभी कोई मिलने आता तो कुछ पैसे देता या फिर कही से कुछ पैसे आते तो उसको हम हमारे बैंक खाते में मतलब नानाजी के पास जमा करवाते और डायरी में एंट्री करवाते।  बहुत बार तो नानाजी से ही पैसे मांगकर जो मिलता उसको खाते में जमा करवा देते थे।  बहुत बार कुछ खाने की इच्छा होती पानी पूरी कचोरी आदि या फिर क्रिकेट की बॉल लाने के लिये पैसे चाहिये या फिर और किसी चीज़ के लिए पैसे चाहिए तो पहले नानाजी से पैसा मांगा जाता। उनसे मिल जाये तो ठीक और बहुत रिक्वेस्ट करने पर भी नही दे तो फिर लास्ट ऑप्शन खाते में से काट दो। इस तरह फिर मजबूरी में खाते से पैसे निकालने पड़ते थे। लेकिन मुझे याद है 1-2 या फिर 5 रुपए खाते में जमा कराते-कराते मेरे 500 से ज्यादा रुपए इकट्ठे हो गए थे। क्योंकि हम पैसे तो बहुत मजबूरी में ही निकालते थे। क्योंकि बहुत बार नानाजी खुद ही दे देते थे बिना खाते से काटक

Lunch Box

स्कूल में सभी बच्चों को लंच ब्रेक का इन्तजार रहता है। हमें भी हमारे स्कूल के दिनों में लंच बॉक्स का इन्तजार रहता था। एक तो वो पाँच पीरियड बाद आता था और एक, टिफ़िन में क्या होगा वो देखने का। पाँचवा पीरियड आते आते तो पेट मे चूहे फुटबॉल खेलना शुरू कर देते थे यही इन्तजार होता कब घण्टी बजेगी कब टिफ़िन खुलेगा। हमारे स्कूल में लंच क्लासरूम में ही करते थे। क्लास में लंच का भी एक व्यवस्था होती थी। लंच की घंटी बजती थी। फिर क्लास टीचर क्लास में आते थे। पहले बेंच साफ करके सब अपने-अपने नेपकिन बिछाते फिर उस पर टिफ़िन रखते। फिर सब एक साथ हाथ जोड़कर आँखे बंद करके मंत्र बोलते थे। ॐ सहनाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवाव है तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषाव है ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ओम शांति बोलते बोलते ही टिफ़िन खुल जाता था लेकिन हमारे टीचर कहा हमको खाने दे। पहले टीचर चेक करते कि बच्चे क्या लेकर आये है कोई फ़ास्ट फ़ूड, अचार पराठे तो नही लाया शनिवार के दिन के अलावा और किसी दिन कोई फ़ास्ट फ़ूड टाइप खाना allow नही था। रोटी सब्ज़ी होने चाहिए और ओनली शाकाहारी। और हरी सब्जी हो तो टीचर तारीफ भी करती। कुछ और लाये हो त

हाथीपोल नोहरे का गरबा

Navratri Garba in Purbia Kalal Samaj Nohra Hathipole Udaipur गरबा / डांडिया / डांडिया रास / नवरात्रि गरबे का नाम सुनते ही मन में कुछ तरंगें उठने लगती है और मन में कुछ धुनें गुनगुनाने लगती है जैसे की   चालो पेला बाम्बू बीट्स ना गरबा रमवा जइये,  चालो पेला बाम्बू बीट्स ना डांडिया रमवा जइये | तारा विना श्याम मने एकलडु लागे,  रास रमवा ने वहलो आवजे....   आसमाना रंग नी चुंदड़ी रे पंखिड़ा हो पंखिड़ा  पँखिडा तु उडी ने जायजे पावागढ़ रे.. मारी महाकाली ने जाइने कीजे गरबों रमे रे ||  ऐसी कितनी ही धुनें जिनको सुनते ही पैर अपने आप थिरकने लगे और दया बेन जैसे नाचने का मन करें | वैसे गरबा रास भारत में कई जगहों पर लोकप्रिय है | खासकर उत्तर भारतीय राज्य जैसे गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि |  मै, यहाँ पर हमारे पुर्बिया समाज के नोहरे हाथीपोल के गरबे के बारे में बताना चाहता हू | नवरात्री के दिन या यू कहे गरबे के दिन | वो गरबे के नो दिन बहुत ही शानदार होते थे | नोहरे के गरबे की एक झलक 2022     वैसे जब भी गरबे के दिन(नवरात्रि) आते थे तो 10-15 दिन पहले ही पता चल जाता था की गरबे शुरू होने वाले है | डंडियो के टकरान

भगवती लाल जी की कुल्फी

बचपन की बात, गर्मियों के दिन, दिन का समय और टन टन टन की आवाज़ | भले ही आप गहरी नींद में हो लेकिन हाथीपोल में तीसरी गली में भगवती लाल जी के ठेले से टन टन टन घंटी की आवाज़ से अच्छे अच्छे जग जाते थे |  जैसे ही पता लगता की भगवती लाल जी कुल्फी की लॉरी तीसरी गली तक पहुंच गयी है तो पैसे का जुगाड़ शुरू हो जाता था | बस सारे खाने खजाने खोज लो कही से 50 पैसे, 1 रुपया का इंतेज़ाम हो जाये और अगर 2  रूपये मिल जाये तो रबड़ी वाली कुल्फी का जैकपोट | इधर उधर ताको में आरियो में हारे-हमारे (तलाशना) शुरू | बहुत बार तो कोई पैसे दे देता तो बचाकर रखते ताकि दिन में भगवती लाल जी आये तो उस समय दुसरो का मुँह नहीं ताकना पड़े | अगर पैसे नहीं है तो दूसरा जुगाड़ शुरू | पहले मम्मी को पटाना, बाई को पटाना, ताऊजी को पटाना | फिर भी नहीं दे तो उनको उनके किसी काम को करने में सहायता का लालच देना की 1 रूपया दोगे तो आपका ये काम मै कर लूंगा वा खाली पचास पैसे दे दो पूरा काम कर लूंगा  |  बहुत बार कोई ना कोई जुगाड़ हो ही जाता | क्योकि कैसे भी करके भगवती लाल जी क़ी रेहड़ी तीसरी गली से हमारे घर तक पहुंचेगा तब तक कुछ न कुछ जुगाड़ करना ही बहुत ब

बचपन का प्रसाद

बचपन की बात है। मै जब हाथीपोल में रहता था। तो वहाँ पर मुझे मुफ्त में प्रसाद खाने का बहुत मौका मिलता था।  मेरे घर के पास 3 मंदिर थे। एक गणेश जी का, दूसरा शिवजी का औऱ तीसरा गुलाबेश्वर बावजी का।  तीन मंदिर और तीन अलग-अलग दिन। सोमवार को शिव मंदिर का नंबर था। बुधवार को पंचमुखी गणेश जी और रविवार को गुलाबेश्वर बावजी का। इन तीनो दिन लोगो की भीड़ जमा होती थी। और मै भी मंदिर के बाहर ही खड़ा रहता था। दर्शन के नही भाई प्रसाद के इन्तजार में। मुझे पता था हर मंदिर में एक आदमी ऐसा आता ही था जो प्रसाद चढाता ही था। और उनके आने का टाइम भी फिक्स था। सोमवार को चढ़ाये प्रसाद में केला मिलता था। बुधवार को लडडू और एक फल मिलता था । और रविवार को  मिठाई मिलती थी और वो भी गरमा गरम इमरती। साथ मे नारियल चटक। सोमवार और रविवार को तो प्रसाद मिलने में ज्यादा टाइम ना लगता लेकिन बुधवार को बडा कष्ट होता क्योंकि बुधवार वाला भक्त चढाता तो खाली एक लडडू और फल था। लेकिन पूजा और मन्त्र में एक घंटे का समय लगाता। और उस एक घंटे के  इन्तजार में दो चार और प्रसाद के मेरे जैसे भूखे इकटठे हो जाते। और मुह ताकते की कब वो जाए और हम प्रसाद पर